Part1
• हलाला:भाग1 |#भगवानदासमोरवाल का उपन्य...
Part2
• हलाला:भाग2 |#भगवानदासमोरवाल का उपन्य...
Part3
• हलाला:भाग3 |#भगवानदासमोरवाल का उपन्य...
Part4
• हलाला:भाग4 | इस एपिसोड में सुनिए कि ...
Part5
• हलाला:भाग5 | इस एपिसोड में सुनिए कि ...
Part6
• हलाला:भाग6 | इस एपिसोड मेंटटलू सेठ ...
Part7
• हलाला:भाग7 | धर्म की आड़ में होने वा...
Part8
• हलाला:भाग8 | धर्म की आड़ में होने वा...
Part9
• हलाला:भाग9 | धर्म की आड़ में होने वा...
Part10
• हलाला:भाग10 | धर्म की आड़ में होने व...
Part11
• हलाला:भाग11 | धर्म की आड़ में होने व...
Part12
• हलाला:अंतिमभाग12|धर्म की आड़ में होन...
#भगवानदासमोरवाल का उपन्यास:हलाला
Novel by Bhagwandass Morwal
AudioBook
हिन्दी साहित्य
Hindi Literature
#स्वरसीमासिंह
@HindiSahityaSeemaSingh
हलाला
लेखक भगवानदास मोरवाल ने उपन्यास हलाला के माध्यम से धर्म की आड़ में महिलाओं के शोषण पर प्रकाश डाला है। हलाला वह प्रथा है जिसमें एक तलाकशुदा महिला अपने पहले पति के पास वापस जा सकती है जब उसकी शादी किसी दूसरे पुरुष से हो जाती है, और वह पुरुष बिस्तर पर होने के बाद उसे तलाक दे देता है।
हलाला यानी तलाक़शुदा औरत किसी दूसरे मर्द से निकाह करे और फिर उससे तलाक़, या उसकी मौत के बाद ही वह पहले शौहर के लिए हलाल होती है, इसी का नाम हलाला है। सल्लाहे वलाहेअस्सलम ने क़ुरान के किस पारे (अध्याय) और सूरा (खण्ड) की किस आयत में कहा है कि पहले शौहर के पास वापस लौटने के लिए दूसरे शौहर से निकाह के बाद उससे ‘हम बिस्तर’ होना ज़रूरी है। दरअसल, हलाला धर्म की आड़ में बनाया गया एक ऐसा कानून है, जिसने स्त्री को भोग्या बनाने का काम किया है। सच तो यह है कि हलाला मर्द को तथाकथित सज़ा देने के नाम पर गढ़ा गया ऐसा पुरुषवादी षड्यन्त्र है जिसका ख़मियाजा अन्ततः औरत को ही भुगतना पड़ता है। सज़ा भी ऐसी जिसे आदिम बर्बरता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। अपने पहले शौहर द्वारा तलाक़ दे दी गयी नज़राना का उसके पड़ोसी व दूसरे मर्द डमरू यानी कलसंडा से हुए तथाकथित निकाह और इस निकाह के बाद फिर से, तलाक़ देने की कोशिश के बावजूद नज़राना को क्या उसका पहला शौहर नियाज़ और उसका परिवार उसे अपनाने के लिए तैयार हो जाएगा? हलाला बज़रिए नज़राना सीधेसीधे पुरुषवादी धार्मिक सत्ता और एक पारिवारिकसामाजिक समस्या को धार्मिकता का आवरण ओढ़ा, स्त्री के दैहिकशोषण के खि़लाफ़ बिगुल बजाने और स्त्रीशुचिता को बचाये रखने की कोशिश का आख्यान है। अपने गहरे कथात्मक अन्वेषण, लोकविमर्श और अछूते विषय को केन्द्र में रख कर रचे गये इस उपन्यास के माध्यम से भगवानदास मोरवाल एक बार फिर उस अवधारणा को तोड़ने में सफल हुए हैं कि आज़ादी के बाद मुस्लिम परिवेश को केन्द्र में