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प.प. श्रीमद् वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज का अंतिम उपदेश.

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TEMBE SWAMI

नमो गुरवे वासुदेवाय

प.प. श्रीमद् वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज का अंतिम उपदेश.

एक दिन हमेशा की तरह गरुडेश्वर में भाष्य पाठ चल रहा था। वह समाप्त कर के श्री स्वामी महाराज ने सब से कहा की 'आज कुछ बात करनी है।' लोगों का मन कान में आकर बैठ गया। श्री स्वामी महाराज ने कहा, "आज तक जो प्रत्यक्ष उपदेश किया और ग्रंथ लिखे, उन सब का सारांश आज बताता हूँ…”

"मुक्ती का लाभ कर लेना यह मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है। उस के लिए प्रथम मन का स्थिर होना जरुरी है। मन स्थिर होने के लिए वर्णाश्रमविहित धर्म का यथाशास्त्र पालन करना चाहिये। वेदांतों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन नित्य करना चाहिए। मुख्यतः श्रवण की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। उस से मन में टिकी हुई आसक्ति कम होगी। सात्विक प्रवृत्ती से ही मनुष्य की उन्नति होती है। सात्विक प्रवृत्ति होने के लिए आहार हित, मित, मेध्य यानि की पवित्र होना जरुरी है। स्वधर्म पर दृढ़ श्रद्धा, स्नान, संध्या, पूजा, पंचमहायज्ञ समय पर करना, अतिथी सत्कार, गोसेवा, कीर्तन, भजन, पुराणों का श्रवण, सब के साथ अच्छा बर्ताव करना, दुसऱों का नुकसान न हो इसलिए सावधानी बरतना, माता पिता की सेवा करना, महिलाओं ने भी ससुराल में रह कर सास, ससुर और बाकि बड़े लोगों की आज्ञा का पालन करते हुए पती की दृढ़ निष्ठा से सेवा करना, इत्यादि गुण अपने में दिखाई दे तो समझना की अपनी प्रकृति सात्विक बन रही है। उदरनिर्वाह के लिए भले ही व्यापार, खेती, नौकरी या अन्य कोई व्यवसाय क्यों न करे पर वेद विहित कर्म और गुरु की आज्ञा का पालन हमेशा करते रहना चाहिए। स्वकर्म करने पर ही अंतःकरण शुद्ध होता है। अंतःकरण शुद्ध होने पर ही उपासना स्थिर होती है। उपासना स्थिर होने पर मन को शांती मिलती है और मन स्थिर होने पर आत्मज्ञान हो कर मोक्ष का लाभ होता है।"

इस प्रकार उन्होंने अत्यंत सारगर्भ और अमृतमय उपदेश किया। "यह सब संक्षिप्त स्वरुप में कह रहा हूँ, इस प्रकार जो जीवन व्यतीत करेगा वह अंत में सुखी होगा।" ऐसे कह कर श्री स्वामी महाराज ने उपदेश का समापन किया।

श्री स्वामी महाराज का यह उपदेश कहीं अंतिम तो नहीं, यह सोच कर कुछ लोगों की आँख भर आयी।

।। भक्तवत्सल भक्ताभिमानी राजाधिराज श्री सदगुरुराज वासुदेवानंद सरस्वती स्वामी महाराज की जय ।।

अवधूत चिंतन श्री गुरुदेव दत्त

posted by bloguarmkt