देव्यपराधक्षमापनस्तोत्रम् : हिंदी अर्थ
अर्थात : हे माँ ! मैं न मंत्र जनता हूँ न यंत्र, अहो ! मुझे स्तुति का भी ज्ञान नहीं है | न आवाहन का पता है न ध्यान का | स्तोत्र और कथाओ कभी ज्ञान नहीं है | न तो मैं तुम्हारी मुद्राएँ जनता हूँ और अ मुझे व्याकुल होकर विलाप ही करना आता है – परन्तु एक बात जनता हूँ की तुमारा अनुशरण करनातुम्हारी शरण में आना सब क्लेशो को सब बिपत्तियों को हरने वाला है ||१||
अर्थात : – हे माँ ! सबका उद्धार करनेवाली कल्याणमयी माता ! मैं पूजा की विधि नहीं जनता | मेरे पास धन का भी अभाव है | मैं स्वभाव से भी आलसी हूँ तथा मुझसे ठीकठीक पूजा का संपादन भी नहीं हो सकता | इन सब कारणों से तुम्हारे चरणों की सेवा में जो त्रुटी हो गई है उसे क्षमा कर देना क्योंकि पुत्र का कुपुत्र होना तो संभव है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती |
अर्थात : माँ ! इस पृथ्वी पर तुम्हारे सीधे सादेपुत्र तो बहोत से हैं किन्तु उन सब में ही अत्यंत चपल तुम्हारा बालक हूँ | मेरे जैसे चंचल कोई बिडला ही होगा | शिवे ! मेरा जो यह त्याग हुआ है, यह तुम्हारे लिए कदापि उचित नहीं है क्योंकि संसार में कुपुत्र का होना संभव है किन्तु माता कही कुमाता नहीं हो सकती |
अर्थात : जगदम्बा! माता ! मैंने तुम्हारे चरणों की सेवा कभी नहीं की | देवी ! तुम्हे अधिक धन भी समर्पित नहीं किया, तथापि मुझ जैसे अधम पर जो तुम अनुपम स्नेह करती हो इसका कारन यह है कि संसार में कुपुत्र तो पैदा हो सकता है पर कहीं भी कुमाता नहीं हो सकती |
अर्थात : हे श्री गणेश को जन्म देनेवाली माता ! मुझे नानाप्रकार की सेवाओं में मुझे व्यग्र रहना पड़ता था |इस लिए ८५ वर्ष से अधिक अवस्था बीत जाने पर मैंने देवताओं को छोड़ दिया है | अब उनकी सेवा पूजा मुझसे नहीं हो पाती , अतएव उनसे कुछ भी सहायता मिलने की आशा नहीं है | इस समय यदि तुम्हारी कृपा नहीं होगी तो मई अवलंब होकर किसकी शरण में जाऊंगा ?
अर्थात : हे माता अपर्णा ! तुम्हारे मन्त्र का एक भी अक्षर मेरे कान में पड़ जाए तो उसका फल यह होगा कि मूर्ख चंडाल भी मधुपाक के सामान मधुर वाणी उच्चारण करने वाला उत्तम वक्ता हो जाता है ; दीन मनुष्य करोड़ो मुद्राओं से संपन्न होकर चिरकाल तक निर्भर विहार करता रहता है | जब मंत्र के एक अक्षर के श्रवण का ऐसा फल है तो जो लोग विधिपूर्वक जप में लगे रहते हैं उनके जप से प्राप्त उत्तम फल कैसा होगा ? इसको कौन मनुष्य जान सकता है ?
अर्थात : भवानी ! जो अपने अंगो में चिता की राख लपेटे रहते हैं, जिनका विष ही भोजन है, जो दिगंबरधारी {नग्न रहनेवाले} हैं, मस्तक पर जाता और कंठ में नागराज वशुकी को हार के रूप में धारण करते हैं तथा जिनके हाथ में कपाल सोभा पाता है , ऐसे भूत्नात पशुपति भी जो एक मात्र `जगदीश’ की पदवी धारण करते हैं, इसका क्या कारन है ? यह महत्व उन्हें कैसे मिला ? यह केवल तुम्हारे पाणिग्रहण की परिपाटी का फल है | अर्थात – तुम्हारे साथ विवाह होने से उनका महत्व बढ़ गया है
अर्थात : मुख पर चंद्रमा की सोभा धारण करने वाली माँ ! मुझे मोक्ष की इच्छा नहीं है, संसार के वैभव की भी अभिलाषा नहीं है; न विज्ञान की अपेक्षा है, न सुख की अकांक्षा; अतः तुमसे मेरी यही याचना है कि मेरा जन्म मृडानी, रुद्राणी, शिवशिव भवानी इन नामों का जपते हुए बीते |
अर्थात : माँ श्यामा ! नानाप्रकार के पूजन सामग्रियों से सभी विधिपूर्वक तुम्हारी आराधना मुझसे न हो सकी | सदा कठोर भाव का चिंतन करने वाली मेरे वाणी ने कौन सा अपराध नहीं किया है ? फिर भी तू स्वयं ही प्रयत्न करके मुझ अनाथ पर जो किंचित कृपा दृष्टि जो रखती हो , माँ! यह तुम्हारे ही योग्य है | तुम्हारे जैसी दयामयी माता ही मेरे जैसे कुपुत्र को भी आश्रय दे सकती है |
अर्थात : – माता दुर्गे ! करुणासिंधु महेश्वरी ! मई विपत्तियों में फंस कर आज जो तुम्हारा स्मरण करता हूँ { और इससे पहले कभी नहीं किया } इसे मेरी शठता न मान लेना क्योंकि भूख,प्यास से पीड़ित बालक माता का ही स्मरण करते है |
अर्थात : हे जगदम्बे ! मुझ पर तुम्हारी कृपा बनी हुई है इसमें आश्चर्य की बात है ,,, पुत्र अपराध पर अपराध करता जाता हो फिर भी माता उसकी उपेक्षा नहीं करती|
अर्थात : – हे महादेवी ! मेरे सामान कोई पापी नहीं और तुम्हारे समान कोई पाप हरिणी नहीं ऐसा जानकार जो उचित परे वो करो |